सभी प्रकार की भौतिक रचनाएँ न्यूनाधिक रूप से कामना के गुण (रजस) के विकास के कारण होती हैं. महत्-तत्व भौतिक रचना का सिद्धांत है, और जब ये परम की इच्छा से उत्तेजित होता है तो पहले कामना और भलाई के गुण प्रमुख होते हैं, औऱ बाद में समय के साथ विभिन्न प्रकार की भौतिक गतिविधियों द्वारा उत्पन्न होकर, कामना का गुण प्रमुख बन जाता है, और जीव इस प्रकार अधिकाधिक अज्ञान में रत हो जाते हैं. ब्रम्हा कामना की अवस्था के प्रतिनिधि हैं, और विष्णु सदाचार की अवस्था के प्रतिनिधि हैं, जबकि अज्ञानता की अवस्था का प्रतिनिधित्व भगवान शिव के द्वारा किया जाता है, जो भौतिक गतिविधियों के पिता हैं. भौतिक प्रकृति को माता कहा जाता है, और भौतिक जीवन का प्रारंभ करने वाले, भगवान शिव पिता हैं. अतः जीवों द्वारा समस्त भौतिक रचना कामना की अवस्था में की जाती है. एक विशेष सहस्राब्दी में जीवन की अवधि की प्रगति के साथ, विभिन्न अवस्थाएँ धीरे-धीरे विकास करते हुए कार्य करती हैं. कलि युग में (जब वासना की अवस्था सबसे प्रमुख है) मानव सभ्यता के विकास के नाम पर विभिन्न प्रकार की भौतिक गतिविधियाँ स्थान लेती हैं, और जीव अपनी वास्तविक पहचान – आध्यात्मिक प्रकृति को अधिक से अधिक भूलते जाते हैं. सदाचार के गुण की किंचित साधना द्वारा, आध्यात्मिक प्रकृति की झलक मिल जाती है, लेकिन वासना की अवस्था की प्रमुखता के कारण, सदाचार की अवस्था दूषित हो जाती है. इसलिए व्यक्ति भौतिक अवस्था से पार नहीं जा पाता, और इसलिए भगवान, जो भौतिक प्रकृति की अवस्था से सदैव पारलौकिक होते हैं, की प्रतीति जीवों के लिए बहुत कठिन हो जाती है, भले ही वे विभिन्न विधियों के अभ्यास से सदाचार की अवस्था में प्रमुखता से स्थित हों. दूसरे शब्दों में, स्थूल पदार्थ अधिभूतम होते हैं, उनका पालन अधिदैवम है, और भौतिक गतिविधियों को प्रारंभ करने वाले को आध्यात्मम कहते हैं. भौतिक संसार में ये तीन सिद्धांत प्रमुख गुणों, कच्ची सामग्री, उसका नियमित प्रदाय, और भटके हुए जीवों द्वारा इंद्रिय भोग के लिए विभिन्न प्रकार की भौतिक रचनाओं में इसके उपयोग के रूप में कार्य करते है.

जीव कर्म के अनुसार विभिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त करता है. किसी जीव को बिल्ली का शरीर मिल सकता है, किसी अन्य को कुत्ते का शरीर मिल सकता है, और उसी प्रकार. इतने सारे विभिन्न शरीर क्यों हैं? क्यों किसी एक प्रकार का शरीर नहीं है? इसका उत्तर भी भगवद्-गीता (13.22) में दिया गया है:
कारणम गुण-संगोस्य सद-असद्-योनि-जन्माषु

“ऐसा भौतिक प्रकृति की अवस्था के साथ उसके संबंध के कारण है. इसलिए वह विभिन्न प्रजातियों के बीच अच्छे और बुरे से मिलता है.” चूँकि शरीर के भीतर स्थित आत्मा भौतिक प्रकृति के तीन गुणों (सदाचार, वासना, और अज्ञान) के साथ संबंध बनाती है, उसे विभिन्न प्रकार के शरीर मिलते हैं. किसी को अपने अगले शरीर की इच्छा नहीं करनी पड़ती; उसे बस निश्चिंत रहने की आवश्यकता होती है कि वह एक भिन्न शरीर होगा. दूसरी ओर, कृष्ण नहीं कहते कि व्यक्ति को किस प्रकार का शरीर मिलेगा. वह योग्यता पर निर्भर करता है. यदि व्यक्ति सदाचार की अवस्था से संबंध बनाता है, तो उसका उत्थान उच्चतर ग्रह मंडलों पर किया जाता है. यदि वह वासना के गुण से संबंध बनाता है, तो वह यहीं रह जाता है. और यदि वह अज्ञानता और अंधकार के गुण से संबंध बनाता है, तो वह निम्नतर जीवन रूपों- पशु, पेड़ और पौधों की ओर जाता है. भगवद-गीता (14.18) में श्रीकृष्ण का उद्घोष है:

उर्ध्वम गच्छंति सत्व-स्थ मध्ये तिष्ठंति रजसः
जघन्य-गुण-वृत्ति-स्थ अधो गच्छंति तमसः

“जो लोग सदाचार की अवस्था में हैं वे धीरे-धीरे उच्चतर ग्रहों को पहुँचेंगे; जो वासना की अवस्था में हैं वे पृथ्वी ग्रह पर रहते हैं; और जो अज्ञान की अवस्था में होते हैं वे नीचे की ओर नारकीय संसारों में जाएंगे.” जीवन की 8,400,000 प्रजातियां हैं, और ये सभी प्रकृति की अवस्थाओं (कारणम् गुण-संगो’स्य) के साथ व्यक्ति के संबंध से उत्पन्न होती हैं. और, शरीर के अनुसार, व्यक्ति दुख और सुख भोगता है. कोई एक कुत्ते से ऐसी आशा नहीं कर सकता कि उसे किसी राजा या संपन्न व्यक्ति जैसी प्रसन्नता मिले. चाहे व्यक्ति इस या उस की प्रसन्नता का आनंद लेता हो या उसे यह या वह दुख हो, दोनों दुख और प्रसन्नता भौतिक शरीर के कारण ही हैं.

योग का अर्थ भौतिक शरीर के कष्ट या सुख से आगे चला जाना है. यदि हम स्वयं को परम योग के माध्यम से कृष्ण के साथ जोड़ लें, तो हम शरीर से उत्पन्न होने वाले भौतिक सुख या दुख से छुटकारा पा सकते हैं. कृष्ण के साथ फिर से जुड़ने को भक्ति-योग कहा जाता है, और कृष्ण हमें इस सर्वोच्च योग में निर्देश देने आते हैं. संक्षेप में, वे कहते हैं, “हे अधम,मेरे साथ अपने संबंध को पुनर्जीवित करो. इन सभी बनाए हुए योग और धर्मों को त्याग दो और मेरे प्रति समर्पण करो.” यह कृष्ण का निर्देश है, और कृष्ण के प्रतिनिधि, अवतार या गुरु, एक ही बात कहते हैं. यद्यपि कपिलदेव कृष्ण के अवतार हैं, वे कृष्ण के प्रतिनिधि, गुरु के रूप में कार्य करते हैं. यदि हम केवल कृष्ण के प्रति समर्पण के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं, तो हम वास्तव में तथाकथित भौतिक सुख के पार हो जाएंगे. हमें भौतिक सुख से वशीभूत नहीं होना चाहिए या भौतिक संकट से दुखी नहीं होना चाहिए. ये बंधन के कारण हैं. भौतिक सुख वास्तविक सुख नहीं है. यह वास्तव में संकट है. हम धन प्राप्त करके खुश रहने का प्रयास करते हैं, लेकिन पैसा बहुत आसानी से प्राप्त नहीं होता है, और इसे पाने के लिए हमें बहुत कष्टों से गुजरना पड़ता है. हालाँकि, हम इस संकट को कुछ झूठी खुशी पाने की आशा के साथ स्वीकार करते हैं. दूसरी ओर, यदि हम अपनी इंद्रियों को शुद्ध करते हैं, तो हम आध्यात्मिक स्तर पर आ सकते हैं. वास्तविक आनंद हमारी इंद्रियों को कृष्ण की इंद्रियों की संतुष्टि में लगाना है. इस तरह हमारी इंद्रियाँ आध्यात्मिक हो जाती हैं, और इसे अध्यात्म-योग या भक्ति-योग कहा जाता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2007, अंग्रेजी संस्करण). “देवाहुति पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 89, 90 व 91
अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण). “श्रीमद् भागवतम, द्वितीय सर्ग, खंड 5, पाठ 23

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