श्रील रूप गोस्वामी कहते हैं :

प्रपंचिकतय बुद्ध्य हरि-संबंधि-वस्तुनाः
मुमुक्षुभिः परित्यागो वैराग्यम फाल्गु कथ्यते

“जो व्यक्ति कृष्ण से अपने संबंध के ज्ञान के बिना वस्तुओं को त्यागता है वह अपने त्याग में अधूरा होता है.” (भक्ति-रसामृत-सिंधु 1.2.66) जब शरीर भगवान की सेवा में लगा हो, तो व्यक्ति को उसे भौतिक नहीं समझना चाहिए. कभी-कभी आध्यातमिक गुरु के आध्यात्मिक शरीर को समझने में भूल की जाती है. किंतु श्रील रूप गोस्वामी निर्देश करते हैं, प्रपंचिकतय बुद्ध्य हरि-संबंधि-वस्तुनाः. पूर्ण रूप से कृष्ण की सेवा में लगे शरीर को भौतिक मानकर उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए. जो उसकी उपेक्षा करता है वह अपने त्याग में झूठा होता है. यदि शरीर को ठीक से पालन नहीं किया जाए, तो वह सूख कर एक उखड़े हुए वृक्ष के समान गिर जाता है, जिससे फूल और फल अब और नहीं लिये जा सकते. इसलिए वेद निर्देश देते हैं:

ओम् इति सत्यं नेति अन्रतम तद् एतत-पुष्पम फलम वाचो यत सत्यम सहेश्वरो यशस्वी कल्याण-कृतिर्भाविता; पुष्पम हि फलम वाचः सत्यम वदति अथ इतन्-मूलम वाचो यद् अन्रतम यद् यथा वृक्ष अविर्मूलः शुष्यति, स उद्वर्तता एवं एवन्रतम वदन अविर्मूलम अत्मानम करोति, स शुष्यति स उद्वर्तते, तस्मद अंतर्तम न वदेद दयेत त्व एतेना. उद्देश्य यह है कि पूर्ण सत्य (ओम् तत् सत्) की संतुष्टि के लिए शरीर की सहायता से की जाने वाली गतिविधियाँ कभी भी अस्थायी नहीं होतीं, भले ही अस्थायी शरीर द्वारा संपन्न की जाएँ. निस्संदेह, ऐसी गतिविधियाँ अमर होती हैं. इसलिए, शरीर की उचित देखभाल की जानी चाहिए. क्योंकि शरीर अस्थायी है, स्थायी नहीं, व्यक्ति शरीर को किसी बाघ द्वारा निगले जाने या किसी शत्रु द्वारा मारे जाने के लिए नहीं छोड़ सकता. शरीर की सुरक्षा करने की सारी सावधानियाँ रखना चाहिए.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 40

(Visited 48 times, 1 visits today)
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •