यद्यपि भगवान का परम व्यक्तित्व सर्व-शक्तिशाली है, फिर भी वे जीवों की सीमित स्वतंत्रता में व्यवधान नहीं पहुँचाता. जीव बहुत क्षुद्र होता है, वह परम सत्य का भाग होता है और इसलिए उसकी स्वतंत्रता का निश्चित परिमाण होता है. इस प्रकार जीव सत्ता अपनी लघु स्वतंत्रता का दुरपयोग करने के लिए और प्रकृति के रूपों से सीमित बनने के लिए स्वतंत्र होता है. जब वह प्रकृति के सात्विक, कामना, और अज्ञान के गुणों से बद्ध हो जाता है, तब उसमें संबंधित सात्विक, कामना और अज्ञान के गुण विकसित हो जाते हैं. जब तक जीव भौतिक प्रकृति से बद्ध रहता है, उसे प्रकृति के उस विशिष्ट गुण के अनुसार व्यवहार करना पड़ता है. यदि ये गुण कार्य नहीं करते, तो हमें प्रतीयमान संसार में इतन विपुल विभिन्नता के गतिविधियाँ देखने को नहीं मिलती. यदि प्रकृति के नियमों के प्रति अज्ञानतावश, हम यह कहते हुए हमारे सभी साधारण कृत्यों को सही ठहराएँ कि वे भगवान के परम व्यक्तित्व की इच्छा से किए जा रहे हैं, तो हम भगवान के सर्वथा सात्विक व्यक्तित्व के प्रति पक्षपात, उन्मत्तता, और अशालीनता का व्यवहार करते हैं. ऐसी कल्पना कभी नहीं करना चाहिए कि विभिन्न साधारण विसंगतियाँ भगवान के परम व्यक्तित्व की इच्छा से उपजती हैं- कि कुछ उनकी इच्छा से प्रसन्न हैं, जबकि अन्य उनकी इच्छा से अप्रसन्न हैं. भौतिक संसार में ऐसे अंतर विभिन्न जीवों की मु्क्त इच्छा के उचित और अनुचित उपयोग के कारण होते हैं. भगवान के परम व्यक्तित्व कृष्ण, सभी व्यक्तियों को प्रकृति के विभिन्न गुणों द्वारा तय की गई ऐसी बाधक लिप्तताओं का त्याग करने के लिए आदेश करते हैं. ऐसी लिप्तताएँ प्रकृति के गुणों द्वारा अनवरत अज्ञान से उपजती हैं, ना कि भगवान की इच्छा से.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “परम भगवान का संदेश”, पृ. 56

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