नारदजी मुक्त आत्माओं में से एक हैं, और अपनी मुक्ति के बाद वे नारद के रूप में जाने गए; अन्यथा, उनकी मुक्ति के पहले, वे बस एक सेविका के पुत्र थे. प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्यों नारदजी परम भगवान के बारे में जागरूक नहीं थे और क्यों वे ब्रम्हाजी को परम भगवान समझते थे, यद्यपि ऐसा नहीं था. एक मुक्त आत्मा ऐसे मिथ्या विचार से व्यग्र नहीं होती, इसलिए क्यों नारदजी ने एक कम बुद्धि वाले सामान्य मानव की भांति वे सभी प्रश्न किए? इसी तरह की व्यग्रता अर्जुन में भी थी, यद्यपि वे भगवान के शाश्वत साथी हैं. अर्जुन या नारद में इस तरह की व्यग्रता भगवान की इच्छा से ही आती है ताकि अ-मुक्त व्यक्ति भगवान के वास्तविक सत्य और ज्ञान का अनुभव कर सकें. नारदजी के मन में ब्रम्हाजी के सर्व-शक्तिशाली होने का संदेह उदित होना कुँए के मेंढकों के लिए एक शिक्षा है, कि हो सकता है कि वे परम भगवान के व्यक्तित्व की पहचान को उलटा समझने में बेसुध हों (भले ही ब्रम्हा जैसे व्यक्तित्व से तुलना करके, सामान्य मानव का तो कहना ही क्या जो स्वयं को भगवान या भगवान के अवतार जैसा बताते हैं). परम भगवान ही हमेशा श्रेष्ठ हैं, और जैसा कि हमने इन अभिप्रायों को स्थापित करने का प्रयास कई बार किया है, कोई भी प्राणी, भले ही वह ब्रम्हा के स्तर का हो, भगवान से ऐक्य रखने का दावा नहीं कर सकता. जब लोग किसी महान व्यक्ति की पूजा उसकी मृत्यु के बाद किसी नायक की पूजा के रूप में करते हैं तो व्यक्ति को भुलावे में नहीं आना चाहिए. भगवान रामचंद्र, अयोध्या के राजा जैसे कई राजा थे, लेकिन प्रकट ग्रंथों में उनमें से किसी का भी वर्णन भगवान के रूप में नहीं मिलता. भगवान राम बनने के लिए अच्छा राजा होना आवश्यक योग्यता नहीं है, लेकिन कृष्ण जैसा महान वयक्तित्व होना भगवान का परम व्यक्तित्व होने की योग्यता है. यदि हम कुरुक्षेत्र के युद्ध में भाग लेने वाले चरित्रों की पड़ताल करें तो, हमें पता लग सकता है कि महाराज युधिष्ठिर भगवान राम से कम पवित्र राजा नहीं थे, और चरित्र का अध्ययन करने पर महाराज युधिष्ठिर भगवान कृष्ण से बेहतर नैतिकतावादी थे. भगवान कृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर से असत्य बोलने के लिए कहा, लेकिन महाराज युधिष्ठिर ने विरोध किया. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि महाराज युधिष्ठिर भगवान रामचंद्र या भगवान कृष्ण के बराबर हो सकते थे. महान विद्वानों ने महाराज युधिष्ठिर के पवित्र होने का अनुमान लगाया है, लेकिन उन्होंने भगवान राम या कृष्ण को भगवान के परम व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया है. इस प्रकार भगवान सभी परिस्थितियों में एक भिन्न पहचान होते हैं, और उन पर अवतार वाद का कोई विचार थोपा नहीं जा सकता.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 5- पाठ 10

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