परम भगवान की ऊर्जा पारलौकिक और आध्यात्मिक है, और जीव उसी ऊर्जा के भाग हैं. यहाँ भगवान को तीन ऊर्जाओं (त्रि-शक्ति-धर्क) द्वारा सर्वशक्तिमान बताया गया है. अतः प्राथमिक रूप से उनकी तीन ऊर्जाएँ आंतरिक (परा), गौण (क्षेत्रज्ञ) और बाह्य (अविद्या) हैं. परा ऊर्जा वास्तव में स्वयं भगवान की ऊर्जा (आंतरिक ऊर्जा) है; क्षेत्रज्ञा ऊर्जा जीव (गौण ऊर्जा) है, और अविद्या ऊर्जा भौतिक संसार, या माया है. इसे अविद्या, या अज्ञान कहते हैं, क्योंकि इस भौतिक ऊर्जा के प्रभाव में जीव अपनी वास्तविक स्थिति और परम भगवान के साथ अपने संबंध को भूल जाते हैं.
आंतरिक ऊर्जा (परा) तीन आध्यात्मिक स्थितियों–संवित (“चित्त” ज्ञान,योगमाया), संधिनी (“सत” अस्तित्व, भगवान बलराम) और आल्हादिनी (“आनंद”, श्री राधा). दूसरे शब्दों में, वह अस्तित्व, ज्ञान और आनंद के पूर्ण प्रकटन हैं. भगवान की संधिनी ऊर्जा के संपूर्ण प्रकटन में से, एक चौथाई भौतिक संसार में प्रदर्शित होती है, और तीन चौथाई आध्यात्मिक संसार में प्रदर्शित होती है.
उसी समान, बाह्य ऊर्जा (“माया” दुर्गा देवी) सत्, काम और अज्ञान की तीन अवस्थाओं में प्रदर्शित होती है.
गौण ऊर्जा, या जीव, भी आध्यात्मिक है (प्रकृतिम् विधि मे परम), लेकिन जीव कभी भी भगवान के बराबर नहीं होते. भगवान निरस्त-सम्य-अतिशय हैं; दूसरे शब्दों में, कोई भी परम भगवान के बराबर या उनसे मह्त्तर नहीं है. इसलिए जीव, भगवान ब्रम्हा और भगवान शिव जैसे व्यक्तित्वों सहित, सभी भगवान से निम्नतर हैं.
भौतिक संसार में भी, उनके विष्णु के अमर रूप में, वे ब्रम्हा और शिव सहित, देवताओं के सभी प्रकरणों का पालन और नियंत्रण करते हैं. निष्कर्ष यह है कि जीव भगवान की किसी एक ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करते हैं, और परम के अतिसूक्ष्म भाग के रूप में उन्हें जीव कहा जाता है. भौतिक संसार में अस्तित्व, ज्ञान और आनंद का ऐसा बोध बहुत कम प्रदर्शित होता है, और सभी जीव, जो भगवान के सूक्ष्म भाग हैं, अस्तित्व, ज्ञान और आनंद की इस चेतना का भोग करने के लिए स्वतंत्र अवस्था में बहुत सूक्ष्म रूप में योग्य हैं, जबकि भौतिक अस्तित्व के सीमित स्तर पर वे बहुत कठिनाई से समझ सकते हैं कि जीवन की वास्तविक, अस्तित्वमान, पहचान योग्य और शुद्ध प्रसन्नता क्या है. स्वतंत्र आत्माएँ, जो भौतिक संसार में रहने वाली आत्माओं से कहीं बड़ी संख्या में अस्तित्वमान हैं, वे ही वास्तविकता में उपरोक्त वर्णित भगवान की सन्धिनी, सम्वित और आल्हादिनी ऊर्जाओं की शक्ति का अनुभव वृद्धावस्था और रुग्णता से मृत्युहीनता, निर्भयता और स्वतंत्रता के संदर्भ में कर सकती हैं.
स्रोत: ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण), “भगवान चैतन्य की शिक्षाएं, स्वर्ण अवतार”, पृष्ठ 246
एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण), “श्रीमद भागवतम”, दूसरा सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 19 और 32
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