जहाँ तक कीर्तन का प्रश्न है, शास्त्र कहते हैं,श्रवणं कीर्तनम विष्णोः : व्यक्ति को परम भगवान की महिमा व परम भगवान के पवित्र नाम का जाप करना चाहिए. यह स्पष्ट कहा गया है. श्रवणं कीर्तनम विष्णोः : व्यक्ति को भगवान विष्णु के बारे में और उनकी महिमा का जाप करना चाहिए, न कि किसी देवता का. दुर्भाग्य से, ऐसे मूर्ख व्यक्ति हैं जो कीर्तन की कुछ प्रक्रिया देवताओं के नाम के आधार पर अविष्कृत करते हैं. यह दोष है. कीर्तन का अर्थ है परम भगवान का गुणगान, किसी देवता का नहीं. कई बार लोग काली-कीर्तन या शिवकीर्तन गढ़ लेते हैं, और यहाँ तक कि मायावादी पंथ के बड़े सन्यासी कहते हैं कि व्यक्ति किसी भी नाम का जाप कर सकता है और तब भी उसे समान परिणाम मिलते हैं. किंतु यहाँ हम पाते हैं कि लाखों वर्ष पहले, जब नारद मुनि एक गंधर्व थे, तो उन्होंने भगवान के गुणगान के आदेश की उपेक्षा की थी, और स्त्रियों के संसर्ग में मतवाले थे, तो उन्होंने अन्यथा ही जाप शुरू कर दिया. अतः उन्हें शूद्र बन जाने का श्राप मिला. उनका पहला दोष यह था कि वे कामी स्त्रियों की संगति में संकीर्तन करने गए, और दूसरा दोष यह कि उन्होंने सामान्य गीतों, जैसे सिनेमा के गीत और अन्य ऐसे गीतों को संकीर्तन के समकक्ष माना. इस दोष के लिए उन्हें शूद्र बन जाने का दंड दिया गया.

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 15- पाठ 72

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