प्रकृति की व्यवस्था द्वारा, फलों और फूलों को कीटों और पक्षियों का भोजन माना जाता है; घास और अन्य पादहीन जीवों को चौपाए जीवों जैसे गाय और भैंसों का भोजन माना गया है; पशु जो अपने आगे के पैरों का उपयोग हाथ के रूप में नहीं कर सकते उन्हें बाघ, जिनके पंजे होते हैं, उनका भोजन माना गया है; और चौपाये जीव साथ ही अन्न के दानों को मानव का भोजन माना गया है. ये चौपाए पशु हिरण और बकरी जैसे जीव होते हैं, गाय नहीं, जिनका संरक्षण करना होता है. सामान्यतः समाज के उच्च वर्गों के लोग — ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य– मांस नहीं खाते. कभी-कभी क्षत्रिय हिरण जैसे पशुओं का वध करने वन में जाते हैं क्योंकि उन्हें वध करने की कला सीखनी होती है, और कभी-कभी वे पशुओं का भक्षण भी करते हैं. शूद्र भी बकरी जैसे पशुओं को खाते हैं. यद्यपि, गायें कभी भी मारने और मानव द्वारा भक्षण किए जाने के लिए नहीं होतीं. सभी शास्त्रों में, गौ-हत्या की घोर निंदा की गई है. निस्संदेह, गौ-हत्या करने वाले व्यक्ति को उतने ही वर्षों का कष्ट भोगना पड़ता है जितने गाय के शरीर पर बाल होते हैं. मनु-संहिता कहती है, प्रवृत्तिर ऐषा भूतानाम् निवृत्तिस् तु महा-फल : इस भौतिक संसार में हमारी कई प्रवृत्तियाँ होती हैं, किंतु मानव जीवन में व्यक्ति को सीखना होता है कि उन प्रवृत्तियों पर कैसे वश पाया जाए. जो मांस खाना चाहते हैं वे अपनी जिव्हा को निम्नतर पशुओं को खाकर संतुष्ट कर सकते हैं, किंतु उन्हें गौ-हत्य कभी भी नहीं करना चाहिए, जिन्हें मानव सभ्यता की माता के रूप में स्वीकार किया जाता है क्योंकि वे दूध की आपूर्ति करती हैं. शास्त्र विशेष रूप से सुझाव देते हैं, कृषि-गौ-रक्ष्य : मानवता के वैश्य प्रभाग को कृषि गतिविधियों के माध्यम से समस्त समाज के लिए भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए और गायों का पूर्ण संरक्षण करना चाहिए, जो कि परम उपयोगी पशु हैं क्योंकि वे मानव समाज को दूध की आपूर्ति करती हैं.

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 4- पाठ 9

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