यहाँ यह बहुत स्पष्ट रूप से समझाया गया है कि भगवान जीवों द्वारा विभिन्न प्रकार के शरीर स्वीकारे जाने के लिए उत्तदायी नहीं हैं. जीव को प्रकृति के नियमों और स्वयं के कर्मों के अनुसार ही कोई शरीर स्वीकार करना पड़ता है. इसलिए वैदिक आज्ञा यह है कि भौतिक गतिविधियों में लगे व्यक्ति को ऐसे निर्देश दिए जाएँ जिनसे वह समझदारी से अपनी गतिविधियों को भगवान की सेवा में संलग्न कर सके ताकि वह बार-बार जन्म और मृत्यु के भौतिक बंधन से मुक्त हो सके. (स्व-कर्मणा तम अभ्यर्च्य सिद्धिम विंदति मानवः). भगवान मार्गदर्शन करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. निस्संदेह, उनके निर्देश भगवद्-गीता में सविस्तार दिए गए हैं. यदि हम इन निर्देशों का लाभ लें, तो हमारे भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध होने पर भी, हम मुक्त होंगे और हमारी वास्तविक अवस्था अर्जित करेंगे (मम एव ये प्रपद्यंते मायाम एताम् तारंति ते). हमें दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि भगवान ही परम हैं और यदि हम उनके प्रति समर्पण कर दें, तो वे हमारा उत्तरदायित्व लेकर निर्देश देंगे कि हम कैसे भौतिक संसार से निकल सकते हैं और परम भगवान के पास, वापस घर जा सकते हैं. ऐसे आत्मसमर्पण के बिना, व्यक्ति अपने कर्म के अनुसार किसी निश्चित प्रकार के शरीर को स्वीकार करने के लिए बाध्य होता है, कभी-कभी एक पशु के रूप में, कभी कोई देवता और उसी प्रकार. यद्यपि शरीर प्राप्त होता है और समय के साथ खो जाता है, आत्मा वास्तव में शरीर के साथ मिश्रण नहीं करती है, बल्कि प्रकृति की विशिष्ट अवस्था के अधीन होती है जिसके साथ वह पापमय विधि से संबंध रखता है. आध्यात्मिक शिक्षा किसी की चेतना को बदल देती है ताकि व्यक्ति परम भगवान के आदेशों का पालन करे और भौतिक प्रकृति के साधनों के प्रभाव से मुक्त हो जाए.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 2 – पाठ 41

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