यह आधुनिक अवधारणा कि जीवन पदार्थ से आता है का समर्थन कुछ सीमा में इस छंद में किया गया है, भूतेषु विरुद्भ्यः. अर्थात्, जीव वनस्पतियों, घास, पेड़-पौधों से विकसित होते हैं. जो निष्क्रिय पदार्थों से श्रेष्ठतर हैं. दूसरे शब्दों में, पदार्थ में भी वनस्पतियों के रूप में जीवों की रचना करने की शक्ति है. इस अर्थ में, जीवन पदार्थ से निकलता है, लेकिन पदार्थ भी जीवन से आता है. जैसा कि कृष्ण भागवद्-गीता (10.8) में कहते हैं, अहं सर्वस्य प्रभावो मत्तः सर्वम् प्रवर्तते: “समस्त आध्यात्मिक और भौतिक संसारों का स्रोत मैं हूँ. सभी कुछ मुझसे ही उत्पन्न होता है.”

दो ऊर्जाएँ होती हैं–भौतिक और आध्यात्मिक और दोनों मूल रूप से कृष्ण से ही आती हैं. कृष्ण ही सर्वोत्तम जीव हैं. हालाँकि ऐसा कहा जा सकता है कि भौतिक संसार में जीवन शक्ति पदार्थ से पैदा होती है, परंतु यह मानना होगा कि पदार्थ वास्तविकता में सर्वोत्तम जीव से उपजता है. नित्यो नित्यम चेतनस चेतनानम्. निष्कर्ष यह है कि, भौतिक और आध्यात्मिक दोनों, सभी कुछ, सर्वोत्तम जीव से उपजता है. विकासवादी दृष्टि से, श्रेष्ठता तब आती है जब कोई जीव ब्राम्हण के स्तर तक पहुँचता है. ब्राम्हण सर्वोत्तम ब्राम्हण का उपासक होता है, और सर्वोत्तम ब्राम्हण, ब्राम्हण का उपासक होता है. दूसरे शब्दों में, भक्त परम भगवान के अधीनस्थ होता है, और भगवान का रुझान अपने भक्त की संतुष्टि को देखने में होता है. ब्राम्हण को द्विज-देव कहा जाता है, और भगवान को द्विज-देव-देव कहा जाता है. वह ब्राम्हणों के भगवान हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण – अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, पांचवाँ सर्ग, अध्याय 05 – पाठ21 व 22

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