“जब बद्ध आत्मा भौतिक गुणों से संगति करना तय करत है, तो वह उन गुणों से दूषित हो जाता है. जैसा कि गीता (13.22) में कहा गया है, कारणं गुण-संगो ‘स्या सद-असद-योनि-जन्मसु. उदाहरण के लिए, किसी मोहक स्त्री की उपस्थिति में, पुरुष अपनी निचली प्रवृत्ति के अधीन हो सकता है और उसके साथ यौन संबंध का आनंद लेने का प्रयास कर सकता है. प्रकृति के निम्न गुणों के साथ जुड़ने का निर्णय लेने से, वे गुण उसमें बहुत शक्तिशाली रूप से प्रकट होते हैं. वह वासना से अभिभूत होता है और अपनी ज्वलंत इच्छा को पूरा करने के लिए बार-बार प्रयास करने के लिए प्रेरित होता है. क्योंकि उसका मन वासना से संक्रमित हो जात है, वह जो कुछ भी करता है, सोचता है और बोलता है वह मैथुन के प्रति उसके सशक्त लगाव से प्रभावित होता है. दूसरे शब्दों में, प्रकृति के कामोत्तेजक गुणों के साथ जुड़कर, उसने उन्हें अपने भीतर शक्तिशाली रूप से प्रकट होने का कारण दिया है, और अंततः वे कामुक गुण स्वयं उसे उन गुणों द्वारा शासित प्रसंगों के लिए उपयुक्त किसी अन्य भौतिक शरीर को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करेंगे.

निम्न गुण, जैसे काम, लोभ, क्रोध और ईर्ष्या, अबुध-लिंग-भावः, अज्ञान के लक्षण होते हैं. निस्संदेह, जैसा कि श्रील श्रीधर स्वामी ने अपनी टिप्पणी में संकेत दिया है, प्रकृति के गुणों की अभिव्यक्ति किसी विशष्ट भौतिक शरीर की अभिव्यक्ति का पर्याय होती है. संपूर्ण वैदिक साहित्य में यह स्पष्ट रूप से समझाया गया है कि बद्ध आत्मा एक विशेष शरीर को प्राप्त करती है, उसे त्याग देती है और फिर केवल प्रकृति के गुणों के साथ सहभागी होने के कारण किसी अन्य शरीर को स्वीकार कर लेती है (कारणं गुण-संगो ‘स्य). इस प्रकार यह कहना कि व्यक्ति प्रकृति के गुणों में भाग ले रहा है, यह कहना होगा कि वह विशिष्ट प्रकार के शरीरों को स्वीकार कर रहा है जो उऩ विशेष भौतिक गुणों के लिए उपयुक्त हैं जिनसे वह जुड़ा हुआ है.”

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, दसवाँ सर्ग, अध्याय 27- पाठ 05

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