अवैयक्तिकतावादी बहस करते हैं कि भगवान की पूजा करना व्यर्थ है जब सभी वस्तुएँ स्वयं भगवान ही हैं. वयक्तिवादी, हालाँकि, भगवान की पूजा, भगवान के शारीरिक अंगों से पैदा हुई सामग्री का उपयोग करते हुए बहुत धन्य भाव से करते हैं. फल और फूल पृथ्वी के शरीर से उपलब्ध होते हैं, और तब भी समझदार भक्त द्वारा पृथ्वी से उत्पन्न सामग्री द्वारा ही धरती माँ की पूजा की जाती है. उसी प्रकार गंगा माँ की पूजा गंगा के ही पानी से की जाती है, और तब भी पूजक ऐसी पूजा के परिणाम का लाभ उठाता है. भगवान की पूजा भी भगवान के शारीरिक अंगों से उत्पन्न सामग्री से की जाती है, और तब भी पूजक, जो स्वयं भी भगवान का अंश है, भगवान की आध्यात्मिक सेवा का लाभ प्राप्त करता है. जबकि अव्यक्तिवादी त्रुटिवश निष्कर्ष निकालता है कि स्वयं वही भगवान है, व्यक्तिवादी, महान आभार के साथ, आध्यात्मिक सेवा में भगवान की पूजा करता है, अच्छी तरह से यह जानते हुए कि भगवान से भिन्न कुछ भी नहीं है. भक्त इसलिए भगवान की सेवा में सब कुछ लगा देने का प्रयास करता है क्योंकि वह जानता है कि सब कुछ भगवान की संपत्ति है और कोई भी व्यक्ति किसी भी वस्तु को स्वयं अपनी होने का दावा नहीं कर सकता. पवित्रता की यह आदर्श अवधारणा उपासक को उसकी प्रेममयी सेवा में लगे रहने में मदद करती है, जबकि झूठे रूप से फंसाया गया अवैयक्तिकतावादी, भगवान द्वारा मान्यता न पाकर हमेशा के लिए अभक्त बना रह जाता है.

स्रोत :अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 6- पाठ 23

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