कई पापी लोग तीर्थस्थलों के पवित्र जल में स्नान करते हैं. वे प्रयाग, वृंदावन और मथुरा जैसे स्थानों पर गंगा और यमुना के जल में स्नान करते हैं. इस प्रकार पापी पुरुष शुद्ध हो जाते हैं, लेकिन उनकी पापमय गतिविधियाँ और उनकी प्रतिक्रियाएँ पवित्र तीर्थस्थलों पर ही रह जाती हैं. जब कोई भक्त उन तीर्थस्थलों पर स्नान करने आता है, तब पापी पुरुषों द्वारा छोड़े गए पापमय प्रभाव भक्त द्वारा निष्प्रभावी हो जाते हैं. तीर्थि-कुरवंति तीर्थानि स्वांत्ः-स्थेन गदा-भृत (भ.गी. 1.13.10). चूँकि भक्त भगवान के परम व्यक्तित्व को हमेशा अपने हृदय में रखता है, वह कहीं भी जाए वह स्थान तीर्थस्थल, भगवान के परम व्यक्तित्व को समझने का पवित्र स्थान, बन जाता है. इसलिए एक विशुद्ध भक्त की संगति में रहना, और इस प्रकार भौतिक प्रदूषण से स्वतंत्रता पाना सभी का कर्तव्य है. सभी लोगों को यायावर भक्तों का लाभ लेना चाहिए, जिसका एकमात्र कार्य बद्ध आत्माओं को माया के पंजों से निकालना होता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, चतुर्थ सर्ग, अध्याय 30- पाठ 37

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