गोपियों का “कामुक व्यवहार” किसी भी प्रकार का यौन आसक्ति को संदर्भित नहीं करता. श्रील रूप गोस्वामी बताते हैं कि यह “कामुक इच्छा” भक्त के कृष्ण के साथ संबंध के विशिष्ट व्यवहार को दर्शाती है. अपनी संपूर्ण अवस्था में प्रत्येक भक्त का भगवान के प्रति सहज आकर्षण होता है. यह आकर्षण कभी-कभी भक्त की “कामुक इच्छा” कहलाता है. वासना भक्त द्वारा विशिष्ट क्षमता में भगवान की सेवा करने की अतिरिक्त इच्छा होती है. ऐसी इच्छा भगवान के भोग की इच्छा लग सकती है, लेकिन वास्तव में वह उस क्षमता में भगवान की सेवा करने का प्रयास होता है. उदाहरण के लिए, कोई भक्त कामना कर सकता है कि उसका संबंध भगवान के साथ ग्वाल सखा के रूप में हो. वह भगवान की सेवा चारागाह में गायों के नियंत्रण में उनकी सहायता द्वारा करना चाहेगा. यह भगवान के सानिध्य का आनंद लेने की इच्छा लग सकती है, लेकिन वास्तव में, उनकी सेवा पारलौकिक गौवंश के प्रबंधन द्वारा करना सहज प्रेम है. भगवान की सेवा की यह चरम इच्छा ब्रज की पारलौकिक भूमि में प्रकट होती है. और यह विशेषकर गोपियों के बीच प्रकट होता है. कृष्ण के प्रति गोपियों का प्रेम इतना ऊँचा होता है कि हमारी समझ के लिए कभी-कभी उसे “कामुक इच्छा‘ के रूप में बताया जाता है. श्री चैतन्य-चरितामृत के लेखक, कविराज कृष्णदास, ने इस वक्तव्य में कामुक इच्छा और सेवा भावना के बीच अंतर बतलाया है: “कामुक इच्छा किसी की व्यक्तिगत इंद्रियों को तृप्त करने की इच्छा को संदर्भित करती है, और पारलौकिक कामना प्रभु की इंद्रियों की सेवा करने की इच्छा को संदर्भित करती है.” भौतिक संसार में ऐसा कुछ नहीं है कि कोई प्रेमी अपने प्रेम पात्र को ऐंद्रिक आनंद देने की इच्छा करता हो. वास्तव में भौतिक संसार में, हर कोई मुख्यतः स्वयं अपनी इंद्रियों को तुष्ट करना चाहता है. हालाँकि, गोपियाँ, और कुछ नहीं बल्कि भगवान को इंद्रिय तुष्टि देना चाहती हैं, और ऐसा कोई उदाहरण भौतिक संसार में नहीं मिलता. इसलिए गोपियों के कृष्ण के प्रति आनंदमयी प्रेम को ज्ञानियों द्वारा कभी-कभी भौतिक संसार की “कामुक इच्छा” के रूप में बताया जाता है, लेकिन वास्तव में इस सत्य की तरह नहीं समझना चाहिए. यह बस पारलौकिक स्थिति को समझने का प्रयास भर है. उद्धव के स्तर के महान भक्त भगवान के प्रिय मित्र हैं, और वे गोपियों के पदचिन्हों पर चलना चाहते हैं. अतः कृष्ण के लिए गोपियों का प्रेम निश्चित रूप से भौतिक कामुक इच्छा नहीं है.

स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2011 संस्करण, अंग्रेजी), “समर्पण का अमृत”, पृ. 122 और 123

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