पतित आत्माओं को भगवान की दया समान रूप से मिलती है. उनके लिए कोई भी घृणा का पात्र नहीं होता. निस्संदेह वे अपने शुद्ध भक्तों के पक्ष में रहने वाले जाने जाते हैं, लेकिन वास्तव में वे कभी पक्षपात नहीं करते, वैसे ही जैसे सूर्य किसी से भी भेदभाव नहीं करता. सूर्य-प्रकाश का उपयोग करके कभी-कभी पत्थर भी मूल्यवान बन जाते हैं, जबकि एक अंधा व्यक्ति सूर्य को नहीं देख सकता, यद्यपि उसके सामने भरपूर सूर्य का प्रकाश होता है. अंधेरा और प्रकाश दो विपरीत अवधारणाएँ हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सूर्य अपनी किरणों के वितरण में पक्षपात करता है. सूर्य की किरणें सभी के लिए हैं, लेकिन प्राप्तकर्ता की क्षमताएँ अलग-अलग होती हैं. मूर्ख व्यक्ति सोचते हैं कि आध्यात्मिक सेवा विशेष कृपा पाने के लिए भगवान के प्रति प्रलोभन है. वास्तविकता में भगवान की पारलौकिक प्रेममयी सेवा में लगे विशुद्ध भक्त कोई व्यापारिक समुदाय नहीं हैं. कोई व्यापारिक प्रतिष्ठान किसी व्यक्ति को मूल्य के बदले सेवा प्रदान करता है. विशुद्ध भक्त भगवान की सेवा ऐसे विनिमय के लिए नहीं करते, और इसलिए भगवान की दया पूर्ण रूप से उनके लिए खुली होती है. पीड़ित और ज़रूरत मंद लोग, या दार्शनिक किसी विशेष प्रयोजन के लिए भगवान के साथ अस्थायी संबंध बनाते हैं. जब प्रयोजन पूरा हो जाता है, तो भगवान के साथ आगे संबंध नहीं रहता. कोई पीड़ित व्यक्ति, यदि वह पवित्र हो, तो भगवान की प्रार्थना स्वस्थ हो जाने के लिए करता है. लेकिन जैसे ही स्वास्थ्य ठीक होता है, अधिकतर प्रसंगों में पीड़ित व्यक्ति भगवान से संबंध रखने की चिंता नहीं करता. भगवान की दया उसके लिए उपलब्ध होती है, लेकिन वह उसे प्राप्त करने में अनिच्छुक होता है. एक विशुद्ध भक्त और मिश्रित भक्त में यही अंतर है. वे लोग जो भगवान की सेवा के बिलकुल विरुद्ध होते हैं वे पूर्णतः अंधकार में माने जाते हैं, वे जो केवल आवश्यकता के समय भगवान की सहायता माँगते हैं, वे भगवान की आंशिक दया के प्राप्तकर्ता होते हैं, और वे लोग जो भगवान की सेवा में शत-प्रतिशत लगे होते हैं वे भगवान की संपूर्ण दया को प्राप्त करते हैं. भगवान की दया को प्राप्त करने में ऐसा भेद-भाव प्राप्तकर्ता से संबंध रखता है और सर्व दयामयी भगवान के पक्षपात के कारण नहीं है.

जब भगवान अपनी सर्व दयामयी ऊर्जा के साथ इस भौतिक संसार में उतरते हैं, तो वे एक मानव के समान ही लीला करते हैं, औऱ इसलिए ऐसा लगता है कि भगवान केवल उनके भक्तों के पक्ष में ही रहते हैं, लेकिन यह वास्तविकता नहीं है. पक्षपात के ऐसे स्पष्ट प्रकटन के बावजूद, उनकी दया समान रूप से प्रसारित होती है. कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भगवान के समक्ष लड़ाई में मारे जाने वाले सभी व्यक्तियों को बिना आवश्यक योग्यता के भी मुक्ति मिली, क्योंकि भगवान के सम्मुख मृत्यु होने से मुक्त होने वाली आत्मा सभी पापों के प्रभाव से मुक्त हो जाती है, और इसलिए मरने वाले व्यक्ति को पारलौकिक धाम में कोई स्थान प्राप्त हो जाता है. किसी भी तरह यदि कोई व्यक्ति स्वयं को सूर्य की किरणों में खुला छोड़ दे, तो उसे ऊष्मा और पराबैंगनी के स्पष्ट लाभ निश्चित ही मिलेंगे. इसलिए, निष्कर्ष यही है कि भगवान कभी पक्षपात नहीं करते. सामान्यतय लोगों द्वारा भगवान को पक्षपात करने वाला मानना गलत है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “रानी कुंती की शिक्षाएँ” पृ. 84

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