परम भगवान, श्री कृष्ण, को हमारी वर्तमान सीमित दृष्टि से नहीं देखा जा सकता. उन्हें देखने के लिए, व्यक्ति को जीवन की भिन्न स्थिति को विकसित करके, परम भगवान के स्वतः-स्फूर्त प्रेम के द्वारा अपनी वर्तमान दृष्टि को परिवर्तित करना होगा. जब श्रकृष्ण विश्व में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित थे, तो हर कोई उन्हें भगवान के परम व्यक्तित्व के रूप में नहीं देख सकता था. रावण, हिरण्यकश्यपु, कंस, जरासंध, और शिशुपाल जैसे भौतिकवादी भौतिक संपत्ति के संग्रह के साथ बड़े ही योग्य व्यक्ति थे, लेकिन वे भगवान की उपस्थिति का गुण जानने में असमर्थ थे. इसलिए, भले ही भगवान हमारी आँखों के सामने उपस्थित हों, उन्हें देखना तब तक संभव नहीं है जब तक हमारे पास अनिवार्य दृष्टि न हो. यह आवश्यक योग्यता केवल आध्यात्मिक सेवा की प्रक्रिया द्वारा ही विकसित की जा सकती है, जिसकी शुरुआत सही स्रोतों से भगवान के बारे में सुनने से होती है. भगवद्-गीता उन लोकप्रिय साहित्य में से एक है जिनका श्रवण, जाप, और दोहराव सामान्य रूप से, सामान्य लोगों द्वारा किया जाता है, लेकिन ऐसे श्रवण आदि के बाद भी, कभी-कभी अनुभव किया जाता है कि ऐसी आध्यात्मिक सेवा का पालन करने वाला व्यक्ति भगवान को सम्मुख नहीं देख पाता. कारण यह है कि पहला भाग, श्रवण, बहुत मह्त्वपूर्ण है. यदि इसका श्रवण सही स्रोत से किया जाय तो यह बहुत शीघ्रता से कार्य करता है. सामान्यतः लोग अनधिकृत व्यक्तियों से श्रवण करते हैं जो शायद शैक्षणिक योग्यता में बहुत प्रवीण हों, लेकिन चूँकि वे आध्यात्मिक सेवा के सिद्धांतों का पालन नहीं करते, ऐसे लोगों द्वारा श्रवण करना समय पूरी तरह से व्यर्थ गँवाना है. कई बार शास्त्रों की व्याख्या उनके अपने उद्धेश्यों के अनुसार किसी विशेष ढंग से की जाती है. इसलिए, व्यक्ति को पहले एक सक्षम और अधिकृत वक्ता का चयन करना चाहिए और फिर उनसे श्रवण करना चाहिए. जब श्रवण प्रक्रिया दोष रहित और संपूर्ण होती है, तब अन्य प्रक्रियाएँ स्वतः ही अपने में ही संपूर्ण बन जाती हैं. जब ध्रुव महाराज तपस्या में थे और अपने हृदय में विष्णु के रूप का ध्यान कर रहे थे, तब अचानक विष्णु का रूप अनुपस्थित हो गया, और उनका ध्यान टूट गया. अपनी आँखें खोलने पर, ध्रुव महाराज को तुरंत अपने सामने विष्णु दिखाई दिए. ध्रुव महाराज के समान, हमें हमेशा कृष्ण के बारे में सोचना चाहिए, और जब हम पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं तब हम कृष्ण को प्रत्यक्ष देख सकेंगे, कृष्ण को देखने के लिए उत्सुकता होना अच्छा है, लेकिन यदि हम उन्हें तुरंत नहीं देख पाएँ तो हमें निराश नहीं होना चाहिए. यदि किसी स्त्री का विवाह होता है और वह तत्काल एक संतान चाहती है, तो उसे निराशा मिलेगी. तत्काल संतान पाना संभव नहीं है. उसे प्रतीक्षा करनी होगी. उसी प्रकार, हम यह आशा नहीं कर सकते कि चूँकि हम कृष्ण चेतना में स्वयं को लगाते हैं तो हम कृष्ण को तुरंत पा सकते हैं. लोकिन हमें यह विश्वास होना चाहिए कि हम उन्हें देखेंगे. हमें यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि यदि हम कृष्ण चेतना में लीन हैं तो हम कृष्ण का साक्षात् दर्शन कर सकेंगे. हमें निराश नहीं होना चाहिए. हमें बस कृष्ण चेतना की गतिविधि में लगे रहना चाहिए, और वह समय आएगा जब हम कृष्ण के दर्शन करेंगे, वैसे ही जैसे कुंती देवी ने उनका साक्षात् दर्शन किया था. इस बारे में कोई संदेह नहीं है.

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “रानी कुंती की शिक्षाएँ” पृ. 148 और 208

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