“हमारे द्वारा इस संसार में किये गये विभिन्न कर्म विभिन्न निर्दिष्ट परिणाम लाते हैं. जब हम इन परिणामों – हमारे कर्मों के फलों- का आनंद लेना शुरू कर देते हैं, तब आनंद लेने के कर्मों के भी, अपने क्रम से, और भी परिणाम निकलते हैं. इस प्रकार हम क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का एक बड़ा वृक्ष विकसित कर लेते हैं जिनमें उनके फल भी होते हैं. और इन फलों के भोक्ता होने के नाते, हम कर्मों के पेड़ और उसके फल के तंत्र में बंध जाते हैं. जन्म-जन्मांतरों तक, आत्मा ऐसे फलों के उत्पादन और उनके आस्वादन की प्रक्रिया में बंधी रह जाती है. हमारे पास कर्म और उसके प्रतिफल के इस बंधन से बचने का अवसर बहुत कम है. सभी कर्मों का त्याग करने और सन्यासी, या आत्मत्यागी जीवन को स्वीकार करने के बाद भी, व्यक्ति को कर्म करना ही पड़ता है, भले ही अपने भूखे पेट को भरने के लिए. इसलिए कोई उपाय नहीं है- कर्म करने से बचने का कोई उपाय नहीं है- पेट के लिए ही सही. इसलिए, इस दुविधा को हल करने के लिए, परम भगवान के व्यक्तित्व, श्री कृष्ण, हमें यह सुझाव देते हैं: “कर्म करने के लिए सर्वोत्तम नीति है कि यज्ञ, या विष्णु, सर्वोत्म उपस्थिति और परम सत्य की संतुष्टि के लिए निर्धारित कर्तव्य पूरे किए जाएँ. अन्यथा सभी कर्मों की प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न होंगी और जिसका परिणाम बंधन ही होगा.” कर्म करने की इस विधि को, जिसके कारण कोई बंधन नहीं उपजता, अतींद्रिय परिणाम, या कर्म-योग के साथ कार्य करना कहा जाता है. इस प्रकार कार्य करने से, व्यक्ति न केवल कार्य के बंधन के प्रति निरापद बन जाता है, बल्कि वह भगवान के परम व्यक्तित्व की ओर पारलौकिक समर्पण भी विकसित कर लेता है. अपने कार्य के फल का आनंद लेने के बजाय, व्यक्ति को भगवान के परम व्यक्तित्व की पारलौकिक प्रेममयी सेवा के लिए समर्पित होना चाहिए.”

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “परम भगवान का संदेश”, पृ. 29

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