भौतिक संसार में हम चबाए हुए को ही चबा रहे हैं, उसे फेंकते हैं, उसे उठाते हैं और फिर उसे ही दोबारा चबाते हैं. आध्यात्मिकता का गुण ऐसा नहीं है. आध्यात्मिक विविधता आनंदमूर्ति-वर्धनम है: यह लगातार बढ़ रही है. यह महासागर से भी वृहद् है, क्योंकि महासागर बढ़ता नहीं है. महासागर के तट तय हैं; उनकी निश्चित सीमा है. हालांकि, आनंद का महासागर लगातार बढ़ रहा है. जैसे-जैसे हम आध्यात्मिक आनंद में उतरते जाते हैं, उतना ही हम आनंदमय बनते जाते हैं. हरे कृष्ण आंदोलन में युवा लोग हरे कृष्ण मंत्र का जाप हर समय करते रहते हैं. यदि यह मंत्र भौतिक होता, तो वे कितनी देर तक इसका जाप करते? किसी भौतिक नाम का जाप बहुत लंबी अवधि तक जपते रहना संभव नहीं है क्योंकि जाप बहुत घिसा-पिटा और थकाऊ हो जाएगा. हरे कृष्ण के जाप से कोई भी संतुष्ट न हो पाता यदि हरे कृष्ण स्वयं आध्यात्मिक न होता. हम ऐसा जाप भी कर सकते हैं, “श्री जॉन, श्री जॉन, श्री जॉन,” किंतु एक घंटे बाद हम ऊब जाएंगे. हालाँकि, हम आध्यात्मिक रूप से जितने ही आगे जाएंगे, उतना ही अधिक आनंद हमें हरे कृष्ण के जाप से मिलने लगेगा.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), “देवाहुति पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृष्ठ 179

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