यदि किसी के भीतर भौतिक इच्छाएँ या उद्देश्य हैं, और ऐसी इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह स्वयं को भक्ति सेवा में संलग्न करता है, तो परिणाम यह होगा कि उसे भगवान का शुद्ध प्रेम कभी नहीं मिलेगा. यदि कोई विचार कर रहा है, “मैं कृष्ण चेतना में, कृष्ण की भक्ति सेवा में संलग्न हूँ, क्योंकि मुझे ऐसा कोई वैभव चाहिए,” तो वह कामना पूर्ण हो सकती है, लेकिन उसे कृष्ण का ऐसा पवित्र प्रेम नहीं मिलेगा, जितना गोपियों को मिला था. यदि किसी के पास एक उद्देश्य है, तो भले ही वह अपने भक्ति कर्तव्य का निर्वहन करता हो, फिर भी वह परम भगवान के शुद्ध प्रेम के स्तर तक नहीं पहुँच पाएगा. दूसरे शब्दों में, यदि किसी के पास भौतिक कामनाएँ हैं, या मोक्ष की कामना भी है, तो वह परम भगवान के शुद्ध प्रेम को प्राप्त नहीं कर सकता है. शुद्ध भक्ति सभी कामनाओं से रहित होती है-वह केवल अपने निमित्त से प्रेमपूर्ण सेवा प्रदान करना होती है. शुद्ध कृष्ण चेतना में कोई भी महत्वाकांक्षा या उद्देश्य नहीं होते हैं. हर दूसरे पारलौकिक व्यवहार या पूजा की विधि किसी उद्देश्य द्वारा समर्थित होती है: कोई मोक्ष चाहता है, कोई भौतिक समृद्धि चाहता है, कोई उच्च ग्रह पर जाना चाहता है, और कोई कृष्णलोक को जाना चाहता है. ये महत्वाकांक्षाएं नहीं होनी चाहिए. एक शुद्ध भक्त की ऐसी कोई महत्वाकांक्षा नहीं होती है. एक शुद्ध भक्त कृष्ण के सर्वोच्च निवास पर जाने की इच्छा नहीं करता है. निस्संदेह, वह जाता है, लेकिन उसकी कोई कामना नहीं होती है. वह बस स्वयं को कृष्ण की सेवा में पूरी तरह से संलग्न करना चाहता है. भक्ति सेवा या कृष्ण चेतना की उच्चतम पूर्णता तब प्रदर्शित की जाती है, जब कोई भक्त परम भगवान से किसी भी कल्याण या लाभ को स्वीकार करने से इनकार कर देता है. प्रह्लाद महाराज को वह सबकुछ प्रस्तुत किया गया था जो उन्हें पसंद था, उन्हें बस कहना भर था, लेकिन उन्होंने कहा, “मेरे भगवान, मैं आपका शाश्वत सेवक हूं. आपकी सेवा करना मेरा कर्तव्य है, इसलिए मैं इससे कोई लाभ कैसे स्वीकार कर सकता हूं?” तब मैं आपका सेवक न बनता; मैं व्यापारी बनता.” उन्होंने उस प्रकार का उत्तर दिया, और यही एक शुद्ध व्यक्ति का संकेत है. श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर कहा करते थे कि भगवान से भक्ति के अतिरिक्त मुक्ति या किसी भी अन्य वस्तु की माँग करना वैसा है जैसे किसी संपन्न व्यक्ति के पास जाना और राख की माँग करना. एक और कथा है, एक बूढ़ी स्त्री के बारे में, जो जंगल के रास्ते सूखी लकड़ी का एक गठ्ठर ले जा रही थी. किसी प्रकार वह गठ्ठरृ, जो बहुत भारी था, पृथ्वी पर गिर गया. बूढ़ी स्त्री बहुत व्यथित हो गई, और सोचा, “कौन इस गठ्ठर को मेरे सिर पर वापस रखने में सहायता करेगा?” फिर उसने भगवान को पुकारना शुरू किया, “भगवान मेरी मदद करें.” अचानक भगवान प्रकट हुए और कहा, “तुम क्या चाहती हो?” उसने कहा, “कृपया इस गठ्ठर को मेरे सिर पर वापस रखने में मेरी सहायता करें।” तो यह हमारी मूर्खता है. जब भगवान हमें कुछ आशीर्वाद देने आते हैं, तो हम बस उन्हें स्वयं को इन भौतिक गठ्ठरों के साथ भर देने के लिए कहते हैं. हम उनसे और भी भौतिक वस्तुओं, एक प्रसन्न परिवार, किसी बड़ी धनराशि के लिए, एक नई कार या कुछ और की माँग करते हैं. कृष्ण इतने दयालु हैं कि वे एक भक्त की सभी इच्छाओं की पूर्ति कर देते हैं, भले ही वह भौतिक कृपा चाहता हो. यदि भक्त के हृदय की गहराई में कुछ कामना हो, तो उसे भी वह पूरा करते हैं. वे बहुत दयालु हैं. लेकिन भक्ति-योग, या भक्ति सेवा की उदात्त स्थिति, यह है कि एक शुद्ध भक्त विभिन्न प्रकार की मुक्ति को स्वीकार करने से इंकार कर देता है, भले ही वह परम भगवान द्वारा प्रस्तुत की गई हो.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “आत्म साक्षात्कार का विज्ञान” पृ. 340 अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2007, अंग्रेजी संस्करण). “देवाहुति पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 196

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