“एक स्त्री का सहज स्वभाव भौतिक संसार का भोग करने का होता है. वह अपने पति की जीभ, पेट और जननांगों को संतुष्ट करके उसे इस संसार का आनंद लेने के लिए प्रेरित करती है, जिसे जिह्वा, उदर और उपस्थ कहते हैं. स्त्री स्वादिष्ट व्यंजनों को पकाने में दक्ष होती है ताकि वह अपने पति को भोजन में सरलता से संतुष्ट कर सके. जब कोई भली प्रकार से खाता है, तो उसका पेट संतुष्ट होता है, और जैसे ही पेट संतुष्ट होता है, जननांग शक्तिशाली हो उठते हैं. विशेषकर तब जब कोई पुरुष माँस खाने, मदिरा पीने और इसी प्रकार की तामसी वस्तुओं का अभ्यस्त हो, तो वह निश्चित ही कामुक हो उठता है. यह समझना चाहिए कि यौन आकर्षण आध्यात्मिक प्रगति के लिए नहीं होता, बल्कि नर्क में उतरने के लिए होता है. इस प्रकार कश्यप मुनि ने अपनी स्थिति का विचार किया और शोकाकुल हो गए. दूसरे शब्दों में, जब तक कोई प्रशिक्षित न हो और पत्नी अपने पति की अनुगामी न हो तो एक गृहस्थ होना बहुत जोखिम भरा होता है. एक पति को अपने जीवन के प्रारंभ में ही प्रशिक्षित होना चाहिये. कौमार्य आचारेत् प्रज्ञ्नो धर्मन् भागवतनिः (भगवद्-गीता 7.6.1). ब्रह्मचार्य, या छात्र जीवन के दौरान, एक ब्रह्मचारी को भगवत्-धर्म, भक्ति सेवा में निपुण होना सिखाया जाना चाहिए. फिर जब वह विवाह करता है, तो यदि उसकी पत्नी अपने पति के प्रति समर्पित है और ऐसे जीवन में उसका अनुसरण करती है, तो पति-पत्नी के बीच संबंध बहुत ही वांछनीय है.

हालाँकि, आध्यात्मिक चेतना के बिना पति और पत्नी के बीच का संबंध केवल इंद्रिय भोग के लिए होना बिलकुल अच्छा नहीं होता. श्रीमद-भागवतम (12.2.3) में कहा गया है कि विशेष रूप से इस युग, कलियुग में, दाम्पत्ये ‘भिरुचिर हेतुः पति-पत्नी के बीच का संबंध यौन शक्ति पर आधारित होगा. इसलिए इस कलियुग में गृहस्थ जीवन बेहद जोखिम भरा है, जब तक कि पत्नी और पति दोनों ही कृष्ण चेतना को नहीं अपना लेते.”

स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, छठा सर्ग, अध्याय 18 – पाठ 40

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