एक भक्त किसी घातक स्थिति को भी खतरनाक नहीं समझता, क्योंकि ऐसी घातक स्थिति में वह उत्साहपूर्वक, परम आनंद में भगवान की प्रार्थना कर सकता है. अतः एक भक्त खतरे को भी एक सुअवसर मानता है. तत् तेनुकंपम सुसमीक्षामनः. जब कोई भक्त बहुत खतरे में होता है, तो वह उस खतरे को भगवान की महान कृपा के रूप में देखता है क्योंकि वह भगवान का बड़ी गंभीरता और अविचलित ध्यान के साथ चिंतन करने का अवसर होता है. तत् तेनुकंपम सुसमीक्षामनो भुंजन एवात्म–कृतम विकपम (भगी. 10.14.8). उनके भक्त को ऐसी खतरनाक स्थिति में डालने के लिए वह भगवान के परम व्यक्तित्व को दोष नहीं देता. बल्कि, वह उस खतरनाक स्थिति को उसके ही पिछले कुकृत्यों का ही परिणाम मानता है और उसे भगवान की प्रार्थना करने का अवसर मानता है और ऐसे अवसर दिए जाने के लिए धन्यवाद देता है. जब कोई भक्त इस प्रकार से जीवनयापन करता है, तो उसकी मुक्ति–उसके वापस घर, परम भगवान तक जाने– की सुनिश्चितता होती है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 32

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