जब भगवान हिरण्यकशिपु के सिंहासन पर विराजमान हुए, तो विरोध करने वाला कोई न था; हिरण्यकशिपु की ओर से भगवान से युद्ध करने कोई आगे नहीं आया. इसका अर्थ है कि उनकी श्रेष्ठता को दानवों द्वारा तुरंत स्वीकार कर लिया गया था. एक और बिंदु है कि यद्यपि हिरण्यकशिपु भगवान को अपना कटुतम शत्रु मानता था, किंतु वह वैकुंठ में भगवान का निष्ठावान सेवक था, और इसलिए भगवान को उस सिंहासन पर बैठने में कोई संकोच न था जिसे हिरण्यकशिपु ने इतने श्रम से बनाया था. श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर इस संबंध में टिप्पणी करते हैं कि कभी-कभी, बहुत सावधानी और ध्यान से, महान संत व्यक्ति और ऋषि वैदिक मंत्रों और तंत्रों के साथ समर्पित महत्वपूर्ण आसन भगवान को अर्पित करते हैं, लेकिन तब भी भगवान उन सिंहासनों पर नहीं बैठते. हिरण्यकशिपु, यद्यपि, पूर्व में वैकुंठ के द्वार का द्वारपाल जय था, और यद्यपि वह ब्राह्मणों के श्राप से पतित होकर राक्षस स्वभाव का हो गया था, भगवान अपने भक्तों और सेवकों के प्रति इतने स्नेही होते हैं कि एसा होने पर भी वे हिरण्यकशिपु द्वारा बनाए गए सिंहासन पर बैठने में प्रसन्न होते हैं. इस संबंध में यह समझना चाहिए कि एक भक्त जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न रहता है.

 

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 08- पाठ 34

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