एक ब्राह्मण के व्यावसायिक कर्तव्य को कम सामाजिक आदेशों में व्यक्तियों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, विशेषकर वैश्य और शूद्रों द्वारा. उदाहरण के लिए, ब्राम्हण का व्यावसायिक कर्तव्य वैदिक ज्ञान की शिक्षा देना होता है, किंतु जब तक कोई आपात स्थिति न हो, इस व्यावसायिक कर्तव्य को क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्रों के द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. यहाँ तक कि कोई क्षत्रिय भी ब्राम्हण का कर्तव्य स्वीकार नहीं कर सकता जब तक कि कोई आपात स्थिति न हो, और फिर यदि वह ऐसा करता है तो उसे किसी अन्य से दान स्वीकार नहीं करना चाहिए. कभी-कभी ब्राम्हण यूरोपियों को ब्राम्हण बनाने के लिए कृष्ण चेतना आंदोलन का विरोध करते हैं, या दूसरे शब्दों में, म्लेच्छों और यवनों को ब्राम्हण बनाने का. यद्यपि, इस आंदोलन का पक्ष श्रीमद्-भागवतम् में लिया गया है. वर्तमान में, समाज एक अराजक स्थिति में है, और सबने आध्यात्मिक जीवन को पोषित करना छोड़ दिया है, जिसका अभिप्राय विशेषकर ब्राम्हणों से है. क्योंकि आध्यात्मिक संस्कृति को सारे संसार में रोक दिया गया है, अब एक आपात स्थिति है, और इसलिए अब समय आ गया है कि उन लोगों को शिक्षित किया जाए जिन्हें निम्न और श्रापित माना जाता है, ताकि वे ब्राम्हण बन सकें और आध्यात्मिक प्रगति का कार्य कर सकें. मानव समाज की आध्यात्मिक प्रगति रुक गई है, और इसे आपातकाल समझना चाहिए.

 

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 11- पाठ 17

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