सौभरि मुनि, अपने व्यावहारिक अनुभव से प्राप्त निष्कर्ष बताते हुए, हमें निर्देश करते हैं कि भौतिक सागर के उस पार जाने में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को उन व्यक्तियों की संगति छोड़ देनी चाहिए जो यौन जीवन और धन संग्रह करने में रुचि रखने वाले होते हैं. यह सुझाव श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी दिया है :

निश्किंचनस्य भागवद-भजनोन्मुकस्य परम परम जिगमिसोर भाव-सागरस्य
संदर्षणम विषयिनाम अथ योशिताम च ह हंता हंता विष-भक्षणतो प्य असाधु
(चैतन्य-चंद्रोदय-नाटक 8.27)

“हाय, कोई ऐसा व्यक्ति जो भव सागर को पार करने और बिना किसी भौतिक उद्देश्य के भगवान की पारलौकिक प्रेममयी सेवा में रत होना चाहता है, उसके लिए किसी भौतिकवादी को इंद्रिय तुष्टि में लगे हुए देखना और समान रुचि रखने वाली स्त्री को देखना स्वेच्छा से विष पीने से भी अधिक घृणास्पद होता है.” वह जो भौतिक बंधन से पूर्ण मुक्ति की कामना रखता है स्वयं को भगवान की पारलौकिक प्रेममयी सेवा में लगा सकता है. उसे विषयी –भौतिकवादी व्यक्तियों या उनसे संबंध नहीं रखना चाहिए जिसकी रुचि यौन जीवन में हो. प्रत्येक भौतिकवादी मैथुन में रुचि रखता है. अतः साधारण भाषा में यही सुझाव है कि एक उत्कृष्ट संत स्वभाव के व्यक्ति को भौतिक रुझान रखने वाले व्यक्तियों से संबंध से बचना चाहिए. सौभरी मुनि पछतावा करते हैं कि सबसे गहरे जल में भी उनकी संगति बुरी थी. यौन वृत्ति में रत मछली के साथ संगति के कारण, वे पतित हुए. यदि अच्छी संगति न हो तो एक एकांत स्थान भी सुरक्षित नहीं होता.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 51

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