इस भौतिक संसार का वर्णन पदम् पदम् यद् विपदाम् के रुप में किया जाता है, जिसका अर्थ है कि प्रत्येक चरण पर कोई विपदा है. एक मूर्ख त्रुटिपूर्वक ये सोचता है कि वह इस भौतिक संसार में प्रसन्न है, किंतु वास्तव में वह नहीं होता, क्योंकि जो ऐसा सोचता है वह केवल भ्रमित है. प्रत्येक चरण पर, प्रत्येक क्षण पर विपदा है. आधुनिक सभ्यता में व्यक्ति सोचता है कि यदि उसके पास एक अच्छा घर और एक बढ़िया कार है तो उसका जीवन पूर्ण है. यदि हम सचमुच सोचते हैं कि यह भौतिक संसार एक प्रसन्नता भरा स्थान है, तो यह हमारा अज्ञान है. वास्तविक ज्ञान यह है कि यह भौतिक संसार विपदा से भरा हुआ है. जहाँ तक हमारी बुद्धि साथ देती है हम अस्तित्व के लिए संघर्ष कर सकते हैं और स्वयं की देखभाल करने का प्रयास कर सकते हैं, किंतु जब तक भगवान के परम व्यक्तित्व, कृष्ण हमें विपदा से नहीं बचाते, हमारे प्रयास अऩुपोयोगी होंगे. इसलिए प्रह्लाद महाराज कहते हैं :

बालस्य नेह शरणम् पितरौ नृसिंह नर्तस्य चगदाम् उदन्वति मज्जतो नौह
तप्तस्य तत्-प्रतिविधर् य इहन्जशेस्तष तवद् विभो तनु-भ्रतम् तवद्-उपेक्षितानाम
(भाग. 7.9.19)

हम प्रसन्न होने की अथवा इस भौतिक संसार की विपदाओं का प्रतिकार करने की कई विधियाँ खोज सकते हैं, किंतु जब तक हमारे प्रयास भगवान के परम व्यक्तित्व के द्वारा अनुमोदित नहीं होते, वे हमें प्रसन्न नहीं बना सकते. वे जो भगवान के परम व्यक्तित्व की शरण लिए बिना प्रसन्न होना चाहते हैं, वे मूढ़ होते हैं. न मम दुष्कृतिनो मूढ़ाः प्रपद्यंते नराधमः. वे जो मनुष्यों में सबसे नीच होते हैं, कृष्ण चेतना स्वीकार करने से मना करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वे कृष्ण की देखभाल के बिना ही स्वयं की रक्षा कर सकते हैं. यह उनकी भूल है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 2 – पाठ 32

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