पारलौकिक संसार या वैकुंठ का वातावरण पारलौकिक विशेषताओं से संपन्न है. ये पारलौकिक गुण, जैसे भगवान की भक्तिमय सेवा के माध्यम से प्रकट होते हैं, अज्ञान, वासना और अच्छाई के साधारण गुणों से भिन्न होते हैं. ऐसे गुण मनुष्यों के अ-भक्त वर्ग द्वारा अर्जित किए जाने योग्य नहीं हैं. पद्म पुराण, उत्तर काण्ड में, कहा गया है कि भगवान की रचना का एक चौथाई भाग के परे तीन चौथाई प्रकटन है. भौतिक उत्पत्ति और आध्यात्मिक उत्पत्ति के बीच विराज नदी एक महीन रेखा है, औऱ विराज के पार, जो कि भगवान के शरीर के पसीने का पारलौकिक प्रवाह होता है, भगवान की रचना का तीन चौथाई प्रकटन है. यह भाग शाश्वत, चिरस्थायी, बिना किसी गिरावट के और असीमित होता है. सांख्य-कौमुदी में कहा गया है कि विशुद्ध अच्छाई या उत्कृष्टता भौतिक स्थिति से ठीक विपरीत होती है. वहाँ सभी जीव शाश्वत रूप से संबंधित होते हैं, और भगवान ही मुख्य और प्रथम जीव हैं. अगम पुराण में भी, पारलौकिक धाम का वर्णन इस प्रकार किया गया है: वहाँ के संबंधित सदस्य भगवान की रचना में कहीं भी आने-जाने के लिए स्वतंत्र हैं, और ऐसी रचना की कोई सीमा नहीं है, विशेषकर तीन चौथाई परिमाण के क्षेत्र में. चूँकि उस क्षेत्र का स्वभाव असीमित है, वहाँ ऐसी संगति का कोई इतिहास नहीं है, न ही उसका कोई अंत है. निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अज्ञानता और वासना के सांसारिक गुणों की पूर्ण अनुपस्थिति के कारण, सृजन या विनाश का कोई प्रश्न ही नहीं है. भौतिक संसार में सब कुछ रचा जाता है और विनष्ट किया जाता है, और सृजन और विनाश के बीच जीवन की अवधि अस्थायी है. पारलौकिक प्रभुता में कोई रचना और कोई विनाश नहीं होता है, औऱ इस प्रकार जीवन की अवधि असीमित रूप से अनन्त है. दूसरे शब्दों में, पारलौकिक संसार में सब कुछ चिरस्थायी है, औऱ क्षय के बिना ज्ञान और आनंद से भरा हुआ है. चूँकि वहाँ कोई क्षय नहीं है, वहाँ समय की अवधारणा में कोई भूत, वर्तमान और भविष्य नहीं है. श्लोक में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि समय का प्रभाव उसकी अनुपस्थिति से स्पष्ट है. संपूर्ण भौतिक अस्तित्व उस तत्व की क्रिया और प्रतिक्रिया द्वारा प्रकट होता है जो भूतकाल, वर्तमान और भविष्य के संदर्भ में समय के प्रभाव को महत्वपूर्ण बना देता है. वहाँ कारण और प्रभाव की ऐसी कोई क्रिया और प्रतिक्रिया नहीं होती है, इसलिए जन्म, विकास, अस्तित्व, रूपांतरण, क्षय और विनाश का चक्र- छह भौतिक परिवर्तन – वहां अस्तित्व में नहीं होते हैं. वह यहाँ भौतिक जगत में अनुभव किए जाने वाले भ्रम के बिना, भगवान की ऊर्जा का विशुद्ध प्रकटन है. वैकुंठ का संपूर्ण अस्तित्व प्रकट करता है कि हर कोई भगवान का अनुयायी है. भगवान वहाँ के प्रमुख अग्रगण्य हैं, नेतृत्व की किसी भी प्रतिद्वंदिता के बिना, और सामान्यतः लोग भगवान के ही अनुयायी होते हैं. वेदों में इसकी पुष्टि की गई है, इसलिए, यह कि भगवान ही प्रमुख अग्रणी हैं और अन्य सभी जीव उनके अधीनस्थ हैं, क्योंकि केवल भगवान ही अन्य सभी जीवों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं. वैकुंठलोक में सभी निवासी आध्यात्मिक शारीरिक गुणों से युक्त व्यक्तित्व होते हैं जो भौतिक संसार में नहीं पाए जाते. हम श्रीमद्-भागवतम जैसे प्रकट ग्रंथों में इसका वर्णन पा सकते हैं. शास्त्रों में पारलौकिकता के अवैयक्तिक विवरणों से संकेत मिलता है कि वैकुंठलोक में शारीरिक विशेषताएँ कभी भी ब्रह्मांड के किसी भी भाग में नहीं दिखाई देती हैं. जैसे किसी भी विशिष्ट ग्रह के विभिन्न स्थानों में विभिन्न शारीरिक विशेषताएँ होती हैं, या जैसे विभिन्न ग्रहों में शरीरों के बीच विभिन्न शारीरिक विशेषताएँ होती हैं, उसी प्रकार वैकुंठलोक में निवासियों की शारीरिक विशेषताएँ भौतिक ब्रम्हांड में पाई जाने वाली विशेषताओं से पूर्ण भिन्न होती हैं. उदाहरण के लिए, चार भुजाएँ इस संसार में पाए जाने वाली दो भुजाओं से भिन्न होती हैं. ऐसा लगता है कि वैकुंठ ग्रह में अनोखी चमक वाले वायुयान भी हैं, और उनमें विद्युत के समान अनोखे आकाशीय सौंदर्य वाली स्त्रियों के साथ भगवान के महान भक्त बैठे होते हैं. जैसे वहाँ वायुयान हैं, इसलिए वहाँ वायुयान जैसे विभिन्न प्रकार के वाहन भी होंगे, लेकिन संभवतः वे मानव चलित यंत्र नहीं होंगे, जैसा कि हम इस संसार में अनुभव करते हैं. चूँकि सब कुछ अनंत, आनंद और ज्ञान के समान प्रकृति वाला है, वायुयान और वाहन ब्राह्मण जैसे गुणों वाले होंगे. यद्यपि वहाँ ब्राम्हण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता, किसी को त्रुटिवश यह नहीं सोचना चाहिए कि वहाँ केवल शून्य है और कोई विविधता नहीं है. इस प्रकार विचार करना ज्ञान के अभाव के कारण ही है; अन्यथा किसी को भी ब्राम्हण में शून्यता की भ्रांति नहीं होती. जैसे वहाँ वायुयान, भद्र महिलाएँ और पुरुष होते हैं, इसलिए वहाँ नगर औऱ घर भी होंगे और ग्रह विशेष के अनुसार अन्य सभी चीज़ें भी होंगी. किसी को भी इस संसार की अपूर्णता का विचार पारलौकिक संसार तक नहीं ले जाना चाहिए और वातावरण की प्रकृति के बारे में उसका समय के प्रभाव से पूर्णतः स्वतंत्र होने के रूप में विचार नहीं करना चाहिए, जैसा कि पहले वर्णित किया गया है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, द्वितीय सर्ग, अध्याय 9- पाठ 10, 11 व 13

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