आध्यात्मिक प्रगति के लिए, व्यक्ति को भौतिक रूप से संतुष्ट होना चाहिए, क्योंकि यदि व्यक्ति भौतिक रूप से संतुष्ट नहीं है, तो भौतिक उन्नति के लिए उसकी लालच का परिणाम उसकी आध्यात्मिक प्रगति की निराशा होगा. दो बातें हैं जो सभी अच्छे गुणों को शून्य कर देती हैं. एक निर्धनता. दरिद्र-दोषो गुण-राशि-नाशि. यदि व्यक्ति निर्धन है, तो उसके सभी अच्छे गुण शून्य बन जाते हैं. उसी प्रकार, यदि व्यक्ति बहुत लालची हो जाता है, तो उसकी अच्छी योग्यताएँ खो जाती हैं. इसलिए सामंजस्य यह है कि व्यक्ति को निर्धन नहीं होना चाहिए, किंतु व्यक्ति को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की संतुष्टि होनी चाहिए और लालची नहीं होना चाहिए. इसलिए एक भक्त के लिए मूलभूत आवश्यकताओं से संतुष्ट रहना आध्यात्मिक प्रगति के लिए सर्वश्रेष्ठ सुझाव है. इसलिए आध्यात्मिक जीवन में अनुभवी ज्ञानी सुझाव देते हैं कि व्यक्ति को मंदिर और मठों की संख्या बढ़ाने का प्रयास नहीं करना चाहिए. ऐसी गतिविधियाँ उन भक्तों द्वारा निष्पादित की जानी चाहिए जो कृष्ण चेतना आंदोलन के प्रचार में अनुभवी हों. दक्षिण भारत में सभी आचार्य, विशेषकर श्री रामानुजाचार्य, ने कई बड़े मंदिर बनाए, और उत्तर भारत में वृंदावन के सभी गोस्वामियों ने बड़े मंदिरों का निर्माण किया. श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने भी बड़े केंद्रों का निर्माण किया, जिन्हें गौड़ीय मठ कहते हैं. इसलिए मंदिर निर्माण बुरा नहीं है, यदि कृष्ण चेतना के प्रचार की चिंता उचित रूप से की गई हो. भले ही ऐसे प्रयासों को लालच भरा माना जाता है, लालच कृष्ण को संतुष्ट करने की है, और इसलिए ये आध्यात्मिक गतिविधियाँ हैं.

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 15- पाठ 21

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