आधुनिक सभ्यता की प्रवृत्ति निर्धन को दान में धन देने की है. ऐसे दान का कोई आध्यात्मिक मूल्य नहीं होता क्योंकि हम वास्तविकता में देखते हैं कि भले ही निर्धनों के लिए बहुत से अस्पताल और अन्य संगठन और संस्थाएँ हैं, भौतिक प्रकृति की अवस्था के अनुसार निर्धन लोगों का वर्ग का नैरंतर्य ही नियति है. यद्यपि बहुत सी कल्याणकारी संस्थाएँ हैं, तब भी निर्धनता मानव समाज से नहीं गई. इसलिए यहाँ सुझाव दिया गया है, भिक्षवे सर्वम् ओम कुर्वण नलम् कामेन चात्मने. व्यक्ति को निर्धनों के बीच भिक्षुकों को सब कुछ नहीं देना चाहिए. सर्वश्रेष्ठ समाधान कृष्ण चेतना आंदोलन का ही है. यह आंदोलन हमेशा निर्धनों के प्रति दयालु रहा है, केवल इस कारण नहीं कि वह उन्हे भोजन देता है बल्कि इसलिए भी कि वह उन्हें कृष्ण चैतन्य बनने की विधि सिखा कर उन्हें आत्मज्ञान भी देता है. इसलिए हम सैकड़ों और हज़ारों केंद्र उन निर्धनों के लिए खोल रहे हैं, जो धन और ज्ञान दोनों से निर्धन हैं. उन्हें कृष्ण चेतना में आलोकित करने और अवैध यौनकर्म, नशा, मांस-भक्षण और जुए से बचने की विधि सिखा कर उनके चरित्र की दोषनिवृत्ति करने के लिए, जो कि सबसे पापमयी गतिविधियाँ हैं और जिनके कारण लोग जन्म-जन्मांतर तक कष्ट भुगतते हैं. धन का उपयोग करने की सर्वश्रेष्ठ विधि ऐसा केंद्र खोलना है, जहाँ सभी लोग आ सकें, रह सकें और अपना चरित्र सुधार सकें. वे शरीर की किसी भी आवश्यकता का त्याग किए बिना बड़े सुख से रह सकते हैं, किंतु वे आध्यात्मिक नियंत्रण में रहते हैं, और इस प्रकार वे सुखपूर्वक रहते हैं और कृष्ण चेतना में प्रगति करने के लिए समय बचाते हैं. यदि व्यक्ति के पास धन हो, तो उसे यूँ ही नहीं उड़ाना चाहिए. उसका उपयोग कृष्ण चेतना आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए किया जाना चाहिए ताकि समस्त मानव समाज सुखी, समृद्ध और परम भगवान तक, वापस घर की ओर पदोन्नति के लिए आशान्वित हो सके.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 41

(Visited 33 times, 1 visits today)
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •