तपस्या दो प्रकार की होती है: एक इंद्रिय संतुष्टि के लिए और दूसरी आत्म-बोध के लिए. कई छद्म रहस्यवादी हैं जो स्वयं संतुष्टि के लिए गंभीर तपस्या से गुजरते हैं, और कुछ अन्य हैं जो भगवान की इंद्रियों की संतुष्टि के लिए गंभीर तपस्या करते हैं. उदाहरण के लिए, परमाणु हथियारों की खोज के लिए की गई तपस्या कभी भी भगवान को संतुष्ट नहीं करेगी क्योंकि ऐसी तपस्या कभी संतोषजनक नहीं होती. प्रकृति की अपनी विधि से, सभी को मृत्यु प्राप्त करना है, और यदि किसी की तपस्या से मृत्यु की ऐसी प्रक्रिया तेज हो जाती है, तो भगवान के लिए कोई संतुष्टि नहीं है. भगवान चाहते हैं कि उनका हर एक अंश परम भगवान के घर पहुँच कर अनंत जीवन और आनंद प्राप्त करे, और संपूर्ण भौतिक रचना इसी उद्देश्य के लिए है. इसलिए भगवान उनसे बहुत प्रसन्न थे, और इसके लिए ब्रह्मा को वैदिक ज्ञान से परिपूर्ण किया गया था. वैदिक ज्ञान का परम उद्देश्य भगवान को जानना है और किसी अन्य उद्देश्य के लिए ज्ञान के दुरुपयोग के लिए नहीं है. जो लोग इस उद्देश्य के लिए वैदिक ज्ञान का उपयोग नहीं करते हैं, उन्हें कुत-योगी या छद्म अनुभवातीतवादी के रूप में जाना जाता है, जो अपने जीवन को परोक्ष उद्देश्यों के साथ बिगाड़ लेते हैं. यदि व्यक्ति परम भगवान के पास, वापस घर लौटने की इच्छा रखता है तो वह भौतिक मायावी वैभव का आनंद नहीं ले सकता, जिसे भगवान की संगति में पारलौकिक आनंद की कोई जानकारी नहीं है, वह इस अस्थायी भौतिक सुख का आनंद लेना चाहता है. चैतन्य-चरितमृत में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति सचमुच भगवान को देखना चाहता है और साथ ही साथ इस भौतिक संसार का आनंद लेना चाहता है, तो उसे केवल मूर्ख माना जाता है. जो भौतिक भोग के लिए यहाँ भौतिक संसार में रहना चाहता है, उसे भगवान के शाश्वत साम्राज्य में प्रवेश करने से कुछ लेना-देन नहीं होता है. भगवान ऐसे मूर्ख भक्त का पक्ष वह सब छीन कर लेते हैं जो भी भौतिक संसार में उसके पास रहा हो. यदि भगवान का ऐसा मूर्ख भक्त अपनी स्थिति को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करता है, तो दयालु भगवान फिर से वह सब छीन लेते हैं जो भी उनके पास हो सकता है. भौतिक समृद्धि के संबंध में बार-बार असफलताओं से वह अपने परिवार और मित्रों के बीच बहुत अलोकप्रिय हो जाता है. भौतिक संसार में परिवार के सदस्य और मित्र ऐसे व्यक्तियों का सम्मान करते हैं जो किसी भी प्रकार से धन संचय करने में बहुत सफल होते हैं. इस प्रकार भगवान के मूर्ख भक्त को भगवान की कृपा से बलात् तपस्या में डाल दिया जाता है, और अंत में भक्त, भगवान की सेवा में रहते हुए संपूर्ण रूप से प्रसन्न हो जाता है. इसलिए भगवान की भक्ति सेवा में तपस्या, या तो स्वैच्छिक रूप से प्रस्तुत करना या भगवान द्वारा विवश किया जाना, पूर्णता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है, और अतः ऐसी तपस्या भगवान की आंतरिक शक्ति होती है. यद्यपि, व्यक्ति बिना पापों से संपूर्ण रूप से मुक्त हुए बिना भक्ति सेवा में संलग्न नहीं रह सकता. जैसा कि भगवद-गीता में कहा गया है, केवल वह व्यक्ति जो पापों की सभी प्रतिक्रियाओं से संपूर्ण रूप से मुक्त है, वही स्वयं को भगवान की भक्ति में संलग्न कर सकता है. ब्रह्माजी पापरहित थे, और इसलिए उन्होंने निष्ठापूर्वक भगवान के सुझाव का पालन किया, “तप तप”, और भगवान ने उनसे संतुष्ट होकर उन्हें मनोवांछित फल प्रदान किया. इसलिए केवल प्रेम और तपस्या ही साथ मिल कर भगवान को प्रसन्न कर सकते हैं, और इस प्रकार व्यक्ति उनकी पूर्ण दया को प्राप्त करने में सक्षम होता है. वे पापहीन को दिशा दिखाते हैं, और पापी भक्त जीवन की उच्चतम पूर्णता को प्राप्त करता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” दूसरा सर्ग, अध्याय 9 – पाठ 20 व 23

(Visited 12 times, 1 visits today)
  • 4
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
    4
    Shares